
केंद्र सरकार ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट से कहा कि राज्य सरकारें उस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका (मामला) नहीं कर सकतीं जो राष्ट्रपतिया राज्यपाल ने विधानसभा से पास हुए विधेयकों पर लिया हो, चाहे राज्य यह कहे कि इससे लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है. केंद्रसरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह बात चीफ जस्टिस (सीजेआई) बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधानपीठ के सामने कही संविधान पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर भी शामिल थे। मेहताने कहा कि राष्ट्रपति इस बात पर सुप्रीम कोर्ट की राय लेना चाहती हैं कि क्या राज्य सरकारें संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत ऐसी याचिकाएं दायरकर सकती हैं.
होता है मौलिक अधिकारों का उल्लंघन
उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रपति यह भी जानना चाहती हैं कि संविधान के अनुच्छेद 361 का दायरा क्या है। यह अनुच्छेद कहता है कि राष्ट्रपति याराज्यपाल अपने अधिकारों और कर्तव्यों के निर्वहन के लिए किसी भी अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं होंगे. मेहता ने संविधान पीठ को बताया कि इनसवालों पर पहले भी चर्चा हुई है लेकिन राष्ट्रपति का मत है कि अदालत की स्पष्ट राय जरूरी है, क्योंकि भविष्य में ऐसा मामला फिर उठ सकता हैउन्होंने कहा कि अनुच्छेद 32 के तहत राज्य सरकार की ओर से राष्ट्रपति या राज्यपाल के फैसलों को चुनौती देने वाली याचिका स्वीकार नहीं की जासकती न तो कोर्ट ऐसे मामलों में कोई निर्देश दे सकता है और न ही इन फैसलों को अदालत में चुनौती दी जा सकती है उन्होंने आगे कहा, अनुच्छेद 32 का उपयोग तब किया जाता है जब मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है.
संवैधानिक संस्था के आदेश
लेकिन सांविधानिक ढांचे में राज्य सरकार खुद मौलिक अधिकार नहीं रखती राज्य सरकार की भूमिका यह है कि वह अपने नागरिकों के मौलिकअधिकारों की रक्षा करे. सॉलिसिटर जनरल ने आठ अप्रैल के उस फैसले का भी जिक्र किया. जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर राज्यपालसमयसीमा के भीतर विधेयकों पर फैसला नहीं करते तो राज्य सीधे सुप्रीम कोर्ट का रुख कर सकते हैं. इस पर सीजेआई गवई ने कहा कि वह आठअप्रैल के दो जजों के फैसले पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे, लेकिन यह भी कहा कि राज्यपाल का किसी विधेयक को छह महीने तक लंबित रखना सहीनहीं है मेहता ने जवाब में कहा कि अगर एक सांविधानिक संस्था अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करती, तो इसका मतलब यह नहीं कि कोर्ट दूसरीसांविधानिक संस्था को आदेश दे.